उपन्यास >> एक कस्बे के नोट्स एक कस्बे के नोट्सनीलेश रघुवंशी
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नीलेश रघुवंशी का अत्यन्त रोचक व विचार-प्रवण उपन्यास
नीलेश रघुवंशी की एक उपलब्धि यह है कि उसने एक ऐसे कथानक को, जिसमें भावनिकता के भयावह अवसर थे, एक निर्मम ढंग से यथार्थवादी रखा है जिसमें हास-परिहास के लिए भी गुंजाइश है। परिवार में माँ है लेकिन वह हमेशा ममतामयी और पतिपरायणा नहीं है उसमें छिपी विद्रोहिणी कभी-भी जागृत हो सकती है। इकलौता बेटा मुँहफट और दुर्विनीत है। अलग-अलग उम्रों और नियतियों वाली बेटियाँ हैं लेकिन उनमें एक बराबरी का बहनापा है। उनके अपने-अपने कुँवारे और ब्याहता सपने हैं। उनकी जद्दोजहद, छोटी-बड़ी दुखान्तिकाएँ और जीवन-परिवर्तक उपलब्धियाँ भी हैं। क्या भारत सरीखे जटिल समाज में ‘फेमिनिस्ट’ सरीखे सीमित और भ्रामक शब्द की जगह ‘एक कस्बे के नोट्स’ को हम ‘मातृवादी’ या ‘बेटीवादी’ या ‘बहनापावादी’ कह सकते हैं? और यदि पिता को लेकर इतनी समझदारी और स्नेह है तो ‘पितावादी’ भी क्यों नहीं?
शायद यह हिन्दी का पहला उपन्यास है जिसमें किसी लेखिका ने एक निम्न-मध्यवर्गीय कस्बाई पारिवारिक जीवन को इतनी अन्तरंगता और असलियत से जीवन्त किया हो। प्रतिभा के लिए सृजन में तो कुछ भी असम्भव नहीं, किन्तु किसी पुरुष के लिए ऐसे घर-परिवार का इतना अन्दरूनी अनुभव मुश्किल ही था।
सच तो यह लगता है कि लेखिका ने इस एक कस्बे के बहाने लगभग सभी उत्तर भारतीय कस्बों को चेहरा दिया है। हम सब यदि (अब) छोटे शहरों में नहीं भी रहते हैं तो कभी-न-कभी उनमें हमारी बूद-ओ-बाश थी, वहाँ से गुजरते, लौटते रहते हैं, हमारे कितनी ही दोस्तियाँ और रिश्ते, और सबसे ऊपर, स्मृतियाँ, अब भी वहीं बसी हुई हैं। हिन्दी लेखन से एक झटके से कस्बा काट दो, वह हलाल हो जाएगा। नीलेश रघुवंशी ने बेशक अपने कस्बे को सजीव पात्रों से आबाद किया है लेकिन उसमें हरकत और जान तभी आती है जब सारे कस्बाई दृश्य, ध्वनियाँ, रंग, गंध, स्पर्श और वे मौसम और धूल-धस्सर जो सिर्फ कस्बों में नसीब होते हैं, उस अल्बम को मूक सीपिया से परदे के वाचाल रंगीन में बदल देते हैं। टेलीविजन पर अपने लम्बे अनुभव के कारण लेखिका अपना शिल्प नियंत्रित रखना जानती है, और पठनीयता के स्तर पर पिछले कुछ वर्षों में ऐसे उपन्यासों का दुर्भिक्ष-सा रहा है।
-विष्णु खरे
शायद यह हिन्दी का पहला उपन्यास है जिसमें किसी लेखिका ने एक निम्न-मध्यवर्गीय कस्बाई पारिवारिक जीवन को इतनी अन्तरंगता और असलियत से जीवन्त किया हो। प्रतिभा के लिए सृजन में तो कुछ भी असम्भव नहीं, किन्तु किसी पुरुष के लिए ऐसे घर-परिवार का इतना अन्दरूनी अनुभव मुश्किल ही था।
सच तो यह लगता है कि लेखिका ने इस एक कस्बे के बहाने लगभग सभी उत्तर भारतीय कस्बों को चेहरा दिया है। हम सब यदि (अब) छोटे शहरों में नहीं भी रहते हैं तो कभी-न-कभी उनमें हमारी बूद-ओ-बाश थी, वहाँ से गुजरते, लौटते रहते हैं, हमारे कितनी ही दोस्तियाँ और रिश्ते, और सबसे ऊपर, स्मृतियाँ, अब भी वहीं बसी हुई हैं। हिन्दी लेखन से एक झटके से कस्बा काट दो, वह हलाल हो जाएगा। नीलेश रघुवंशी ने बेशक अपने कस्बे को सजीव पात्रों से आबाद किया है लेकिन उसमें हरकत और जान तभी आती है जब सारे कस्बाई दृश्य, ध्वनियाँ, रंग, गंध, स्पर्श और वे मौसम और धूल-धस्सर जो सिर्फ कस्बों में नसीब होते हैं, उस अल्बम को मूक सीपिया से परदे के वाचाल रंगीन में बदल देते हैं। टेलीविजन पर अपने लम्बे अनुभव के कारण लेखिका अपना शिल्प नियंत्रित रखना जानती है, और पठनीयता के स्तर पर पिछले कुछ वर्षों में ऐसे उपन्यासों का दुर्भिक्ष-सा रहा है।
-विष्णु खरे
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